Saturday, December 20, 2014

मिटटी का बर्तनो का उपयोग करे ।

मिट्टी के बर्तनों का उपयोग करें -
हजारों सालोंसे हमारे यहाँ मिट्टी के बर्तनों का उपयोग होता आया है। अभी कुछ सालो पहले तक गाँव की शादियों में तो मिट्टी के बर्तन ही उपयोग में आते थे। घरों में दाल पकाने, ढूध गरम करने, दही ज़माने, चावल बनाने और आचार रखने के लिए मिट्टी के बर्तनों का उपयोग होता रहा है। मिट्टी के बर्तन में जो भोजन पकता है उसमे सुक्ष्म पोषक तत्वों (Micronutrients) की कमी नही होती जबकि प्रेशर कुकर व अन्य बर्तनों में पकाने से सुक्ष्म पोषक तत्वों कम हो जाते हैं जिससे हमारे भोजन की पौष्टिकता कम हो जाती है। खाना धीरे धीरे पकाना चाहिए तभी वह पौष्टिक और स्वादिष्ट पकेगा और उसके सुक्ष्म पौषक तत्वों सुरक्षित रहेंगे।

हमारे शारीर को प्रतिदिन 18 प्रकार के सुक्ष्म पौषक तत्त्व चाहिये जो मिट्टी से ही आते है। जैसे आयरन, केल्शियम, फास्फोरस, मैगनेसियम, सल्फ़र, पोटासियम, कॉपर - आदि। मिट्टी के इन्ही गुणों और पवित्रता के कारण हमारे यहाँ पूरी के मंदिरों (उड़ीसा) के अलावा कई मंदिरों में आज भी मिट्टी के बर्तनों में प्रसाद बनता है। अधिक जानकारी के लिए पूरी के मंदिर की रसोई देखे।

Video देखे
अपने आसपास के कुम्हारों से मिट्टी के बर्तन लें व उन्हें बनाने के लिए प्रेरित करें।
यहाँ क्लिक करें: http://www.youtube.com/watch?v=Q2IsL_xpuGY

Monday, December 8, 2014

प्रजापति का इतिहास । बहुत ही महान ।


कुम्हार प्रजापति

कुम्हार मिट्टी के बर्तन एवं खिलौनाबनाने वाली एक जाति होती है जो भारतके सभी प्रांतों में पाई जाती है। इस जाति के लोगों का विश्वास है कि उनके आदि पुरुष महर्षि अगस्त्य हैं। यह भी समझा जाता है कि यंत्रों में कुम्हार के चाक का सबसे पहले आविष्कार हुआ। लोगों ने सबसे पहले चाक घुमाकर मिट्टी के बर्तन बनाने का आविष्कार किया। इस प्रकार कुम्हार अपने को आदि यंत्र कला का प्रवर्तक कहते हैं जिसके कारण अनेक स्थान के कुम्हार अपने को प्रजापति कहते हैं।

Saturday, December 6, 2014

जय श्री प्रजापति हम बदलेंगे युग बदलेगा

                                  श्री              
                          जय प्रजापति    
                                
                    हम बदलेंगे युग बदलेगा                        
मनुष्य को जीवन में ऎसा काम करना चाहिए कि दुनिया उसे हमेशा याद रखे। दुसरे को बदलने की कोशिश बाद में करो, पहले खुद बदलो। हमेशा एक बात ध्यान में रखो की हम बदलेंगे युग बदलेगा।

भगवान महावीर का निर्वाण हुए हजारों वर्ष हो गए हैं, लेकिन उनके द्वारा किए गए सद्कार्यो के कारण लोग आज भी उन्हें जानते हैं। इसी प्रकार भगवान राम, युग पुरूष स्वामी विवेकानन्द, शहीद भगत सिंह सहित कई भगवान व महापुरूषों को लोग उनके द्वारा किए गए कार्यों की वजह से आज भी जानते हैं। और जाने जाते हैं

                   हम बदलेंगे युग बदलेगा

Wednesday, November 26, 2014

प्रजापति हैं हम ,हमारे पास कितना हैं दम

बंगले . गाडी तो " प्रजापति " की घर घर
की कहानी हैं.........
तभी तो दुनिया " प्रजापति " ओ
की दिवानी हैं...
अरे मिट गये " प्रजापति " को मिटाने वाले
क्योकि आग मे तपती " प्रजापति "
की जवानी है..
ये आवाज नही शेर कि दहाड़ है…..
हम खडे हो जाये तो पहाड़ है…...
हम इतिहास के वो सुनहरे पन्ने है…..
जो भगवान राम ने ही चुने है….
दिलदार औऱ दमदार है" " प्रजापति..
रण भुमि मे तेज तलवार है"" प्रजापति "
पता नही कितनो की जान है प्रजापति "..
सच्चे प्यार पर कुरबान है"" " प्रजापति..
यारी करे तो यारो के यार है"" " "
प्रजापति "
औऱ दुशमन के लिये तुफान है"" " प्रजापति " ""..
तभी तो दुनिया कहती है बाप रे खतरनाक
है"" "
प्रजापति """"..
शेरो के पुत्र शेर ही ज़ाने जाते हैं, लाखो के
बीच. " प्रजापति "
पहचाने जाते हैं।।..
मौत देख कर किसी क़े पिछे छुपते नही ,हम"
प्रजापति " ,
मरने से क़भी डरते नही। हम
अपने आप पर ग़र्व क़रते हैं,
दुशमनों को काटने का जीगरा हम रखते हैं ,..
कोई ना दे हमें खुश रहने की दुआ,
तो भी कोई बात नहीं...
वैसे भी हम खुशियाँ रखते नहीं,
बाँट दिया करते हैं।

Friday, November 21, 2014

लाख रोगों की एक दवा का काम करता है यह मंत्र



     लाख रोगों की एक दवा का काम करता है यह मंत्र


मंत्र जाप में इतनी शक्ति होती है कि इनसे कई तरह के रोगों का उपचार होता है। यहां तक कि इसको अध्यात्म का दवाखाना भी कहा जाता है।

 “ॐ रुद्राये नमह”

 उपरोक्त मंत्र को सिद्ध करने के लिए 6 महीने तक प्रतिदिन एक माला जाप करें। इस मंत्र के प्रभाव से कठिन एवं असाध्य रोगों पर विजय प्राप्त होती है। गंभीर रोग की स्थिति में पानी में देखकर मंत्र जाप करें और वो पानी रोगी को पीने के लिए दे दें। स्वयं बीमार हों तो भी ऐसा ही करें।

इस जाप में किसी भी प्रकार के नियम की बाध्यता नहीं होती है। सोते समय, चलते समय, यात्रा में एंव शौच आदि करते वक्त भी मंत्र जप अपने मन की माला से करते रहे। मंत्र शक्ति का अनुभव करने के लिए कम से कम एक माला नित्य जाप करना चाहिए। मंत्र का जप प्रातः काल पूर्व दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए एंव सांयकाल में पश्चिम दिशा की ओर मुख करके जप करना श्रेष्ठ माना गया है।

तिलक लगाना क्या हैं ? जानिए

सनातन संस्कृति में प्राचीन काल से ही मस्तक पर तिलक लगाने की परंपरा चली आ रही है। मानव शरीर में सात सूक्ष्म ऊर्जा केंद्र होते हैं, जिन्हें चक्र कहते हैं। मस्तिष्क के बीच में जिस स्थान पर तिलक लगाया जाता है वहां आज्ञाचक्र स्थापित होता है। इसे गुरुचक्र भी कहते है। 

इसी चक्र के एक ओर दाईं ओर अजिमा नाड़ी होती है तथा दूसरी ओर वर्णा नाड़ी है। ज्योतिष में आज्ञाचक्र बृहस्पति का केन्द्र है। इसे गुरु का प्रतीक-प्रतिनिधि माना गया है। बृहस्पति देवताओं के गुरु है, अस्तु, साधना ग्रन्थों में इसे गुरुचक्र के नाम से अभिहित किया गया है। 

मस्तक पर तिलक लगाने को शुभ और सात्विकता का प्रतीक माना जाता है। सफलता प्राप्ती के लिए रोली, हल्दी, चन्दन या फिर कुमकुम का तिलक लगाने की प्रथा है। यदि आप किसी भी नए कार्य के लिए जा रहे हैं, तो काली हल्दी का टीका लगाकर जाएं। यह टीका आपकी सफलता में मददगार साबित होगा। जो जातक तिलक के ऊपर चावल लगाता है लक्ष्मी उस जातक के आकर्षण में बंध जाती है और सदा उसके अंग-संग रहती है।

प्रत्येक उंगली से तिलक लगाने का अपना-अपना महत्व है जैसे मोक्ष की इच्छा रखने वाले को अंगूठे से तिलक लगाना चाहिए, शत्रु नाश करना चाहते हैं तो तर्जनी से, धनवान बनने की इच्छा है तो मध्यमा से और सुख-शान्ति प्चाहते हैं तो अनामिका से तिलक लगाएं। देवताओ को मध्यमा उंगली से तिलक लगाया जाता है। उत्तर भारत में तिलक आरती के साथ आदर, सत्कार और स्वागत कर तिलक लगाया जाता है।

Friday, October 10, 2014

 प्रजापतियों के समान ब्रह्मा जी ने 

  दक्ष प्रजापति को अन्य प्रजापतियों के समान ब्रह्मा जी ने अपने मानस पुत्र के रूप में रचा था। दक्ष प्रजापति का विवाह स्वयंभुव मनु की तृतीय कन्या प्रसूति के साथ हुआ था।

संतान

दक्ष प्रजापति की पत्नी प्रसूति ने सोलह कन्याओं को जन्म दिया जिनमें से स्वाहा नामक एक कन्या का अग्नि का साथ, सुधा नामक एक कन्या का पितृगण के साथ सतीनामक एक कन्या का भगवान शंकर के साथ और शेष तेरह कन्याओं का धर्म के साथ विवाह हुआ। धर्म की पत्नियों के नाम थे- श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, द्वी और मूर्ति।

दक्ष प्रजापति ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया था जिसमें द्वेषवश उन्होंने अपने जामाता भगवान शंकर और अपनी पुत्री सती को निमन्त्रित नहीं किया। शंकर जी के समझाने के बाद भी सती अपने पिता उस यज्ञ बिना बुलाये ही चली गईं। यज्ञस्थल में दक्ष प्रजापति ने सती और शंकरजी का घोर निरादर किया। अपमान न सह पाने के कारणसती ने तत्काल यज्ञस्थल में ही योगाग्नि से स्वयं को भस्म कर दिया। सती की मृत्यु का समाचार पाकर भगवान शंकरने वीरभद्र के द्वारा उस यज्ञ का विध्वंश करा दिया। वीरभद्रने दक्ष प्रजापति का सिर भी काट डाला। बाद में ब्रह्मा जी की प्रार्थना करने पर भगवान शंकर ने दक्ष प्रजापति को उसके सिर के बदले में बकरे का सिर प्रदान कर उसके यज्ञ को सम्पन्न करवाया।

सती का आत्मदाह

दक्ष के प्रजापति बनने के बाद ब्रह्मा नें उसे एक काम सौंपा जिसके अंतर्गत शिव और शक्ति का मिलाप करना था। उस समय शिव तथा शक्ति दोनों अलग रहे और शक्ति के बिना शिव शव हैं, शिव पागलों की तरह जंगल में विचरण कर रहे थे जिससे विश्व का सर्वनाश हो सकता था। इसीलिये दक्ष को कहा गया कि वो शक्ति माता का तप करकर उन्हें प्रसन्न करें तथा पुत्री रूप में प्राप्त करे। तपस्या के उपरांत माता शक्ति ने दक्ष से कहा,"मैं पुत्री तो हो जाऊँ परंतु मेरा मिलनशिव से ना हुआ तो मैं आत्मदाह कर लूँगी, ना मैं उनका अपमान सहुंगी। शक्ति के रूप में सती का जन्म हुआ। ब्रह्मा अपने तीन सिरों से वेदपाठ करते तथा एक सिर से वेद को गालियाँ भी देते जिससे क्रोधित हो शिव ने उनका एक सिर काट दिया, ब्रह्मा दक्ष के पिता थे अत: दक्ष क्रोधित हो गया। शिव से बदला लेने की बात करने लगा। राजा दक्ष की पुत्री ‘सती’ की माता का नाम था प्रसूति। यह प्रसूति स्वायंभुव मनु की तीसरी पुत्री थी। सती ने अपने पिती की इच्छा के विरूद्ध कैलाश निवासी शंकर से विवाह किया था।

सती ने अपने पिता की इच्छा के विरूद्ध रुद्र से विवाह किया था। रुद्र को ही शिव कहा जाता है और उन्हें ही शंकर। पार्वती-शंकर के दो पुत्र और एक पुत्री हैं। पुत्र- गणेश, कार्तिकेवय और पुत्री वनलता। जिन एकादश रुद्रों की बात कही जाती है वे सभी ऋषि कश्यप के पुत्र थे उन्हें शिव का अवतार माना जाता था। ऋषि कश्यप भगवान शिव के साढूं थे।

मां सती ने एक दिन कैलाशवासी शिव के दर्शन किए और वह उनके प्रेम में पड़ गई। लेकिन सती ने प्रजापति दक्ष की इच्छा के विरुद्ध भगवान शिव से विवाह कर लिया। दक्ष इस विवाह से संतुष्ट नहीं थे, क्योंकि सती ने अपनी मर्जी से एक ऐसे व्यक्ति से विवाह किया था जिसकी वेशभूषा और शक्ल दक्ष को कतई पसंद नहीं थी और जो अनार्य था।

दक्ष ने एक विराट यज्ञ का आयोजन किया लेकिन उन्होंने अपने दामाद और पुत्री को यज्ञ में निमंत्रण नहीं भेजा। फिर भी सती अपने पिता के यज्ञ में पहुंच गई। लेकिन दक्ष ने पुत्री के आने पर उपेक्षा का भाव प्रकट किया और शिव के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें कही। सती के लिए अपने पति के विषय में अपमानजनक बातें सुनना हृदय विदारक और घोर अपमानजनक था। यह सब वह बर्दाश्त नहीं कर पाई और इस अपमान की कुंठावश उन्होंने वहीं यज्ञ कुंड में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए।

सती को दर्द इस बात का भी था कि वह अपने पति के मना करने के बावजूद इस यज्ञ में चली आई थी और अपने दस शक्तिशाली (दस महाविद्या) रूप बताकर-डराकर पति शिव को इस बात के लिए विवश कर दिया था कि उन्हें सती को वहां जाने की आज्ञा देना पड़ी। पति के प्रति खुद के द्वारा किए गया ऐसा व्यवहार और पिता द्वारा पति का किया गया अपमान सती बर्दाश्त नहीं कर पाई और यज्ञ कुंड में कूद गई। बस यहीं से सती के शक्ति बनने की कहानी शुरू होती है।

दुखी हो गए शिव जब : यह खबर सुनते ही शिव ने वीरभद्र को भेजा, जिसने दक्ष का सिर काट दिया। इसके बाद दुखी होकर सती के शरीर को अपने सिर पर धारण कर शिव ने तांडव नृत्य किया। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देख कर भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र द्वारा सती के शरीर के टुकड़े करने शुरू कर दिए।

शक्तिपीठ: इस तरह सती के शरीर का जो हिस्सा और धारण किए आभूषण जहां-जहां गिरे वहां-वहां शक्ति पीठअस्तित्व में आ गए। देवी भागवत में 108 शक्तिपीठों का जिक्र है, तो देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का जिक्र मिलता है। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों की चर्चा की गई है। वर्तमान में भी 51 शक्तिपीठ ही पाए जाते हैं, लेकिन कुछ शक्तिपीठों का पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका में होने के कारण उनका अस्तित्व खतरें में है।

Saturday, September 13, 2014

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ

जानिए ॐ का महत्त्व
ॐ 🚩ॐ 🚩ॐ 🚩ॐ

 ॐ" के जाप से होता है...
आत्मिक एवं शारीरिक लाभ :-
 ॐ" केवल एक पवित्र ध्वनि ही नहीं, अपितु अनंत शक्ति का प्रतीक है।
 ॐ अर्थात् ओउम् : तीन अक्षरों से बना है, जो सर्व विदित है । अ उ म् ।
 'अ" का अर्थ है आर्विभाव या उत्पन्न होना,
 "उ" का तात्पर्य है उठना, उड़ना अर्थात् विकास,
 "म" का मतलब है मौन हो जाना, अर्थात्"ब्रह्मलीन" हो जाना ।
 ॐ सम्पूर्णब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का द्योतक है
 ॐ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का प्रदायक है।
 ॐ का जप कर कई साधकों ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर ली।
 शुद्ध आसन पर पूर्व की ओर मुख कर एक हज़ार बार ॐ रूपी मंत्र का जाप करने से वर्तमान और भविष्य दोनों ही जीवन लक्ष्य की और अग्रसर होते है।

ॐ उच्चारण की विधि : --
 प्रातः उठकर पवित्र होकर ओंकारध्वनि का उच्चारण करें ।
 ॐ का उच्चारण पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन, वज्रासन में बैठकर कर इसका उच्चारण 11, 21, 51, 108, 1008 कितनी ही बार अपने समयानुसार कर सकते हैं, जाप या जप माला भी गिन सकते है ।
 ॐ जोर से बोल सकते हैं, धीरे-धीरे भी बोल सकते हैं।

 ॐ के उच्चारण से शारीरिक लाभ : -
1. अनेक बार ॐ का उच्चारण करने से पूरा शरीर तनाव-रहित हो जाता है।
2. अगर आपको घबराहट या अधीरता होती है तो ॐ का उच्चारण करें।
3. यह शरीर के विषैले तत्त्वों को दूर करता है, अर्थात तनाव के कारण पैदा होने वाले द्रव्यों पर नियंत्रण करता है।
4. यह हृदय और ख़ून के प्रवाह को संतुलित रखता है।
5. इससे पाचन शक्ति तेज़ होती है।
6. इससे शरीर में फिर से युवावस्था वाली स्फूर्ति का संचार होता है।
7. थकान से बचाने के लिए इससे उत्तम उपाय कुछ और नहीं।
8. नींद न आने की समस्या इससे कुछ ही समय में दूर हो जाती है, रात को सोते समय नींद आने तक मन में ॐ का जप करने से निश्चित नींद आएगी।
9. कुछ विशेष प्राणायाम के साथ इसे करने से फेफड़ों में मज़बूती आती है।
10. ॐ के पहले शब्द का उच्चारण करने से कंपन पैदा होती है, इन कंपन से रीढ़ की हड्डी प्रभावित होती है और इसकी क्षमता बढ़ जाती है।
11. ॐ के दूसरे शब्द का उच्चारण करने से गले में कंपन पैदा होती है जो कि थायरायड ग्रंथी पर प्रभाव डालता है।


जब कभी भी आप कोई काम न कर रहे हों या यात्रा कर रहे हो या मन परेशान हो :--

चित को शांत करने की कोशिश करते हुए इस अलोकिक पवित्र अक्षर ॐ का मन में उचारण करते रहे और देखे जीवन में चमत्कार!

इस अक्षर के उचारण से आपके आसपास धनात्मक उर्जा का निर्माण होता है, नकारात्मक उर्जा, बीमारी, दुःख, चिंता नष्ट हो कर आपका जीवन स्वर्ग बन जाता है।

मित्रों इसे जीवन में अवश्य अपनाए।🚩ॐ🚩

Friday, August 22, 2014

प्रजापति को कुमावत लिखने का अधिकार नहीं हैं

। प्रजापति को कुमावत लिखने का अधिकार नहीं हैं

कुम्भ अर्थात कलश का प्राचीन काल से महत्त्व चला आ रहा है,कलश के शीर्ष, मध्य व अंतिम तल भाग में तीनो ब्रह्मा,विष्णु व सदाशिव का निवास माना गया है जिसके चलते कलश का वर्तमान में भी धार्मिक महत्त्व है।मिट्टी का कलश मात्र कलश नही देवताओं का निवास स्थल है,और जो इस कलश का निर्माता है, उसका सम्मान अपने आप ऊपर हो जाता है।

वास्तव में "कुमावत" कौन है


श्री राजपूत सभा जयपुर द्वारा प्रकाशित"राजस्थान के कछवाहा" नामक पुस्तक में लेखक कुंवर देवी सिंह मण्डावा ने कछवाहा राजवंश की ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि में लिखा है कि आमेर के राजा श्री चन्द्रसेन जी के राज्य काल में दिल्ली के लोदी सुल्तान के सेनापति हिन्दाल ने जब अमरसर के शेखावतों पर हमला किया तब राजा चन्द्रसेन जी ने अपने छोटे पुत्र कुम्भा जी को राव रायमल जी शेखावत की मदद को भेजा । इस युध्द में कुम्भा जी वीरता पूर्वक लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए ।

कुमावतों का मुख्य ठिकाना महार था । कुमावतों का महार ताजिमी ठिकाना था । कुमावतों का छोटी महार,बघवड़ा,पालड़ी,बीसोल्या आदि ठिकाने थे । बीकानेर राज्य में कुमावतों का एक ठिकाना सादि ताजीमा भालेरी(चुरु) था। आमेर के राजा श्री चन्द्रसेन जी की मृत्यु के बाद उनके बड़े पुत्र पृथ्वीराज जी आमेर की गददी पर 11 फरवरी सन 1503 को बैठे । राजा पृथ्वीराज के बाद उनके पुत्र राजा भरमल जी ने कछवाहा राजपूतों की 12 कोटड़ी(खांप या तड़) कायम की "12 कोटड़ी" पुस्तक अनुसार (1) हमीरदेका , (2) कुम्भाणी , (3) स्योब्रहमपोता , (4) वणवीरपोता , (5)कुमावत ,(6)पच्याणोत ,(7)सुलतानोता , (8)नथावत , (9)खंगारोत ,(10)बलभद्रोत , (11) चतुर्भुजोत , (12)कल्यणोत , आदि सर्व मान्य 12 कोटड़ी थी ।
जयपुर मर्दुमशुमारी (सम्वत 1889 ) के अनुसार कछ्वाहा राजपूतों की (1) हमीरदेका , (2) कुम्भाणी , (3) स्योब्रहमपोता ,  (4)कुमावत , (5)रामसिहोत , (6)पच्याणोत ,(7)सुलतानोता , (8)नथावत , (9)खंगारोत ,(10)बलभद्रोत , (11) चतुर्भुजोत , (12)कल्यणोत , (13) पुरण्मलोत, (14)प्रतापपोता, (15) सांईदासोत, (16) कोटड़ी (खाप) थी ।
                 उपरोक्त एतिहासिक रिकार्ड से स्पष्ट है कि "कुमावत" कछहावा राजपूतों की एक कोटड़ी या खांप है  अतः कुम्हार जाति को "कुमावत" शब्द लिखने का अधिकार नही है ।