प्रजापति एवं कुमावत – एक परिचय
शब्द की उत्पति एवं अर्थ
कुम्भ का निर्माण करने के कारण इसके निर्माता काे कुम्भकार कहा गया। प्राचीन इतिहास में कुलाल शब्द का प्रयोग किया गया है।
अलग अलग क्षेत्र में अलग अलग भाषा होने के कारण इसका उच्चारण समय के साथ अलग होता गया। जैसे मराठी क्षेत्र में कुम्भारे पश्चिमी क्षेत्र में कुम्भार राजस्थान में कुमार तो पश्चिमी राजस्थान में कुम्भार कुम्बार पंजाब हरियाणा के सटे क्षेत्र में गुमार। अमृतसर के कुम्हारों को “कुलाल” या “कलाल” कहा जाता है , यह शब्द यजुर्वेद मे कुम्हार वर्ग के लिए प्रयुक्त हुये है।
कुम्हारों के पारंपरिक मिट्टी से बर्तन बनाने की रचनात्मक कला को सम्मान देने हेतु उन्हे प्रजापति कहा गया। जिस प्रकार ब्रह्मा पंच तत्वों इस नश्वर सृष्टि की रचना करते है उसी प्रकार से कुम्भार भी मिट्टी के कणों से कई आकर्षक मूर्तियां खिलौने बर्तन आदि का सृजन करता है इसीलिए इस जाति प्रजापति की उपमा दी गयी।
ये भी माना जाता है कि मनुष्यों मे शिल्प और अभियांत्रिकी की शुरूआत इसी जाति से हुई है।
विभिन्न तरह की मिट्टी के गारे के निर्माण के प्रयोग करते समय ही चूने और खड़ी के प्रयोग का पता चला। इसी चूने खड़ी से चुनाई और भवन निर्माण का कार्य करने वाले चेजारे कहलाते है। ये भी इसी जाति से अधिकतर है।
कुमावत शब्द
राजस्थान में कुछ कुमारों/कुम्भारों ने कुमरावत शब्द का प्रयोग किया जो बाद में कुमावत में तब्दील हो गया।
इसको समझने के लिये भाषा विज्ञान पर नजर डाले-
कुमावत शब्द की सन्धि विच्छेद करने पर पता चलता है ये शब्द कुमा + वत से बना है। यहां वत शब्द वत्स से बना है । वत्स का अर्थ होता है पुत्र या पुत्रवत शिष्य अर्थात अनुयायी। इसके लिये हम अन्य शब्दों पर विचार करते है-
निम्बावत अर्थात निम्बार्काचार्य के शिष्य
रामावत अर्थात रामानन्दाचार्य के शिष्य
शेखावत अर्थात शेखा जी के वंशज
लखावत अर्थात लाखा जी के वंशज
रांकावत अर्थात रांका जी के शिष्य या अनुयायी
इसी प्रकार कुमरावत/कुमावत का भी अर्थ होता है कुम्हार के वत्स या अनुयायी।

कुछ लोग अपने मन से कु+मा+वत जैसे मन माने ढंग से सन्धि विच्छेद करते है और मनमाने अर्थ देते है जो कि व्याकरण सम्मत नहीं है और हास्यास्पद है।
कई बन्धु प्रश्न करते है कि कुम्हार शब्द था फिर कुमावत शब्द का प्रयोग क्यों शुरू हुआ। उसके पीछे मूल कारण यही है कि सामान्यतया पूरा समाज पिछड़ा रहा है और जब कोई बन्धु तरक्की कर आगे बढा तो उसने स्वयं को अलग दर्शाने के लिये इस शब्द का प्रयोग शुरू किया। और अब यह व्यापक पैमाने में प्रयोग होता है। वैसे इतिहास में कुमावत शब्द का प्रयोग जयपुर के स्थापना (1728 ई) के समय से मिलता है। जयपुर शहर राजस्थान के समस्त शहरों में अपेक्षाकृत नया है।
कई बन्धु यह भी कहते है कि इतिहास में कुमावतों का युद्ध में भाग लेने का उल्लेख है। तो उन बन्धुओ को याद दिलाना चाहुंगा कि युद्ध में सभी जातियों की थोड़ी बहुत भागीदारी अवश्य होती थी और वे आवश्यकता होने पर अपना पराक्रम दिखा भी देते थे। युद्ध में कोई सैनिकों की सहायता करने वाले होते थे तो कोई दुदुभी बजाते कोई गीत गाते कोई हथियार पैने करते तो कोई भोजन बनाते। महाराणा प्रताप ने तो अपनी सेना में भीलों की भी भर्ती की थी। ये भी संभव है कि इस प्रकार युद्ध में भाग लेने वाले समाज बन्धु ने कुमावत शब्द का प्रयोग शुरू किया।



कुछ बन्धु यह भी कहते है कि इतिहास में पुरानी जागीरों का वर्णन होता है अत: वे राजपूत के वंशज है या क्षत्रिय है। तो उन बन्धुओं का बताना चाहुंगा की जागीर देना या ना देना राजा पर निर्भर करता था। जोधपुर में मेहरानगढ के दुर्ग के निर्माण के समय दुर्ग ढह जाता तो ये उपाय बताया गया कि किसी जीवित व्यक्ति द्वारा नींव मे समाधि लिये जाने पर ये अभिशाप दूर होगा। तब पूरे राज्य में उद्घोषणा करवाई गई कि जो व्यक्ति अपनी जीवित समाधि देगा उसके वंशजों को जागीर दी जाएगी। तब केवल एक गरीब व्यक्ति आगे आया उसका नाम राजाराम मेघवाल था। तब महाराजा ने उसके परिवार जनों को एक जागीर दी तथा उसके नाम से एक समाधि स्थान (थान) किले में आज भी मौजूद है। चारणों को भी उनकी काव्य गीतों की रचनाओं से प्रसन्न हो खूब जागीरे दी गयी। अत: जागीर होना या थान या समाधी होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि वे राजपूत के वंशज थे। और क्षत्रिय वर्ण बहुत वृहद है राजपूत तो उनके अंग मात्र है। कुम्हार युद्ध में भाग लेने के कारण क्षत्रिय कहला सकता है पर राजपूत नहीं। राजपूत तो व्यक्ति तभी कहलाता है जब वह किसी राजा की संतति हो। क्षत्रिय होने के लिए राजा का वंशज होना जरूरी नहीं होता। कर्म से व्यक्ति क्षत्रिय वैश्य या शुद्र होता है। कुम्हार/कुमार शिल्प कार्य करने के कारण वैश्य वर्ण में आता है। कुछ क्षत्रिय कर्म करते थे तो स्वयं को क्षत्रिय भी कहते है।
भाट और रावाें ने अपनी बहियों में अलग अलग कहानीयों के माध्यम से लगभग सभी जातियों को राजपूतों से जोडा है ताकि उन्हे परम दानी राजा के वंशज बता अधिक से अधिक दान दक्षिणा ले सके।
लेकिन कुमावत और कुम्हारों को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि राजपूतो में ऐसी गोत्र नहीं होती जैसी उनकी है और जिस प्रकार कुमावत का रिश्ता कुमावत में होता है वैसे किसी राजपूत वंश में नहीं होता। अत: उनको भाट और रावों की झूठी बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए। राजपूतों मे कुम्भा नाम से कई राजा हुए है अत: हो सकता है उनके वंशज भी कुमावत लगाते रहे हो। पर अब कुम्हारों को कुमावत लगाते देख वे अपना मूल वंश जैसे सिसोदिया या राठौड़ या पंवार लगाना शुरू कर दिया होगा और वे रिश्ते भी अपने वंश के ही कुमावत से ना कर कच्छवाहो परिहारो से करते होंगे।
कुछ बन्धु ये भी तर्क देते है कि हम बर्तन मटके नहीं बनाते और इनको बनाने वालों से उनका कोई संबंध कभी नहीं रहा। उन बंधुओ को कहते है कि आपके पुराने खेत और मकान जायदाद मे तो कुम्हार कुमार कुम्भार लिखा है तो वे तर्क देते है कि वे अज्ञानतावश खुद को कुम्हार कहते थे। यहां ये लोग भूल जाते है कि हमारे पूर्वज राव और भाट के हमारी तुलना में ज्यादा प्रत्यक्ष सम्पर्क में रहते थे। अगर भाट कहते कि आप कुमावत हो तो वे कुमावत लगाते। और कुमावत शब्द का कुम्हारों द्वारा प्रयो्ग ज्यादा पुराना नहीं है। वर्तमान जयपुर की स्थापना के समय से ही प्रचलन में आया है और धीरे धीरे पूरे राजस्थान में कुम्हारों के मध्य लोकप्रिय हो रहा है। और रही बात मटके बनाने की तो हजार में से एक व्यक्ति ही मटका बनाता है। क्योंकि अगर सभी बनाते इतने बर्तन की खपत ही कहा होती। कम मांग के कारण कुम्हार जाति के लोग अन्य रोजगार अपनाते। कुछ खेती करते कुछ भवन निर्माण करते कुछ पशुचराते कुछ बनजारो की तरह व्यापार करते तो कुछ बर्तन और मिट्टी की वस्तुए बनातें। खेतीकर, चेजारा और जटिया कुमार क्रमश: खेती करने वाले, भवन निर्माण और पशु चराने और उन का कार्य करने वाले कुम्हार को कहा जाता था।
कुछ कहते है की मारू कुमार मतलब राजपूत। मारू मतलब राजपूत और कुमार मतलब राजकुमार।
– उनके लिये यह कहना है कि राजस्थान की संस्कृति पर कुछ पढे। बिना पढे ऐसी बाते ही मन मे उठेगी। मारू मतलब मरू प्रदेश वासी। मारेचा मारू शब्द का ही परिवर्तित रूप है जो मरूप्रदेश के सिंध से जुड़े क्षेत्र के लोगो के लिये प्रयुक्त होता है। और कुमार मतलब हिन्दी में राजकुमार होता है पर जिस भाषा और संस्कृति पर ध्यान दोगे तो वास्तविकता समझ आयेगी। यहां की भाष्ाा में उच्चारण अलग अलग है। यहां हर बारह कोस बाद बोली बदलती है। राजस्थान मे ‘कुम्हार’ शब्द का उच्चारण कुम्हार कहीं नही होता। कुछ क्षेत्र में कुम्मार बोलते है और कुछ क्षेत्र में कुंभार अधिकतर कुमार ही बोलते है। दक्षिण्ा भारत में कुम्मारी, कुलाल शब्द कुम्हार जाति के लिये प्रयुक्त होता है।
प्रजापत और प्रजापति शब्द के अर्थ में कोई भेद नहीं। राजस्थानी भाषा में पति का उच्चारण पत के रूप में करते है। जैसे लखपति का लखपत, लक्ष्मीपति सिंघानिया का लक्ष्मीपत सिंघानिया। प्रजापति को राजस्थानी में प्रजापत कहते है। यह उपमा उसकी सृजनात्मक क्षमता देख कर दी गयी है। जिस प्रकार ब्रहृमा नश्वर सृष्टी की रचना करता है प्राणी का शरीर रज से बना है और वापस मिट्टि में विलीन हो जाता है वैसे है कुम्भकार मिट्टि के कणों से भिन्न भिन्न रचनाओं का सृजन करता है।
कुछ कहते है कि रहन सहन अलग अलग। और कुम्हार स्त्रियां नाक में आभूषण नही पहनती। तो इसके पीछे भी अलग अलग क्षेत्र के लोगो मे रहन सहन के स्तर में अन्तर होना ही मूल कारण है। राजस्थान में कुम्हार जाति इस प्रकार उपजातियों में विभाजित है-
मारू – अर्थात मरू प्रदेश के
खेतीकर – अर्थात ये साथ में अंश कालिक खेती करते थे। चेजारा भी इनमें से ही है जो अंशकालिक व्यवसाय के तौर पर भवन निर्माण करते थे। बारिस के मौसम में सभी जातियां खेती करती थी क्योंकि उस समय प्रति हेक्टेयर उत्पादन आज जितना नही होता था अत: लगभग सभी जातियां खेती करती थी। सर्दियों में मिट्टि की वस्तुए बनती थी। इनमें दारू मांस का सेवन नहीं होता था।
बांडा ये केवल बर्तन और मटके बनाने का व्यवसाय ही करते थे। ये मूलत: पश्चिमी राजस्थान के नहीं होकर गुजरात और वनवासी क्षेत्र से आये हुए कुम्हार थे। इनका रहन सहन भी मारू कुम्हार से अलग था। ये दारू मांस का सेवन भी करते थे।
पुरबिये – ये पूरब दिशा से आने वाले कुम्हारों को कहा जाता थ्ाा। जैसे हाड़ौती क्षेत्र के कुम्हार पश्चिमी क्षेत्र में आते तो इनको पुरबिया कहते। ये भी दारू मांस का सेवन करते थे।
जटिया- ये अंशकालिक व्यवसाय के तौर पर पशुपालन करते थे। ये पानी की अत्यंत कमी वाले क्षेत्र में रहते है वहां पानी और घास की कमी के कारण गाय और भैंस की जगह बकरी और भेड़ पालते है। और बकरी और भेड़ के बालों की वस्तुए बनाते थे। इनका रहन सहन भी पशुपालन व्यवसाय करने के कारण थोड़ा अलग हो गया था हालांकि ये भी मारू ही थे। इनका पहनावा राइका की तरह होता था। बाड़मेर और जैसलमेर में पानी और घास की कमी के कारण वंहा गावं में राजपूत भी भेड़ बकरी के बड़े बड़े झुण्ड रखते है।
रहन सहन अलग होने के कारण और दारू मांस का सेवन करने के कारण मारू अर्थात स्थानीय कुम्हार बांडा और पुरबियों के साथ रिश्ता नहीं करते थे।
मारू कुम्हार दारू मांस का सेवन नहीं करती थी अत: इनका सामाजिक स्तर अन्य पिछड़ी जातियों से बहुत उंचा होता था। अगर कहीं बड़े स्तर पर भोजन बनाना होता तो ब्राहमण ना होने पर कुम्हार को ही वरीयता दी जाती थी। इसीलिए आज भी पश्चिमी राजस्थान मेंहलवाई का अधिकतर कार्य कुम्हार और ब्राहमण जाति ही करती है।
पूराने समय में आवगमन के साधन कम होने से केवल इतनी दूरी के गांव तक रिश्ता करते थे कि सुबह दुल्हन की विदाई हो और शाम को बारात वापिस अपने गांव पहुंच जाये। इसलिये 20 से 40 किलोमीटर की त्रिज्या के क्षेत्र को स्थानीय बोली मे पट्टी कहते थे। वे केवल अपनी पट्टी में ही रिश्ता करते थे। परन्तु आज आवागमन के उन्नत साधन विकसित होने से दूरी कोई मायने नहीं रखती।
कुछ बंधु हास्यास्पद कुतर्क भी करते है जैसे- कुम्हार कभी इतनी बड़ी तादाद में नहीं रहते की गांव के गांव बस जाये। जोधपुर शहर के पास ही गांव है नान्दड़ी। इसे नान्दीवाल गौत्र के कुम्हारो ने बसाया था। आज भी वहां बड़ी संख्या कुम्हारों की है। एक और गांव है झालामण्ड। वह भी कुम्हार बहुल आबादी का गांव है। ऐसे कई गांव है। पूर्वी राजस्थान में भी है। रूपबास भी ऐसा ही गांव है। ये ऐसा कुतर्क है जो केवल अनजान व्यक्ति ही दे सकता है जो कुपमण्डुक की तरह केवल एक जगह रहा हो। अौर कुम्हार जो मटके बनाते है वे कभी अकेले नहीं रहते। उनकी नियाव जहां मटके आग में पकाये जाते है, वहां सभी कुम्हारों के मटके साथ में पकते है और उस न्याव पर गांव का जागीरदार कर भी लगाता था।
कुछ लोग एक और हास्यास्पद तर्क देते है कि कुम्हार कारू जाति होने से लगान नहीं देते थे। ये भी इन लो्गों की अज्ञानता और पिछड़ापन और घटिया सोच दर्शाता है। ये भूल जाते है कि कुम्भ निर्माण एक शिल्पकला है। कुमार/कुम्भार ना केवल मिट्टी से कुम्भ का निर्माण करता है वरन अन्य वस्तु भी बनाता है। जैसे ईन्ट मूर्तियां और खिलौन एवं अन्य सजावटी उत्पाद। अत: कुम्भकार शिल्पकार वर्ग में आता ही नहीं वरन शिल्पकार वर्ग का जनक माना जाता है। मिट्टी के उत्पाद मुख्यतया सर्दियों मे बनाये जाते थे। और मानसून में तो लगभग सभी जातियों कृषि कार्य करती थी। और जो कृषि करते थे उनको लगान देना पड़ता था। सिर्फ ब्राह्मण से लगान नहीं लिया जाता था। और रही बात कुम्हारों को शादी ब्याह में नेग देने की बात तो वो केवल उसी कुम्हार को दिया जाता है जिसके घर में चाक होती है और जिसे पूजा जाना होता है। विवाह के अवसर पर चाक पूजन की अनिवार्य रस्म होती है। चाक से सृजन होता है और विवाह से वंश वृद्धि होती है अत:चाक को मंगलकारी माना जाता है। इसी चाक की वजह से कुम्हार को नेग मिलता है बदले में कुम्हार पवित्र कलश देता है। जो कुम्हार बर्तन बनाते थे वे सामूहिक तौर पर उनको न्याव में पकाते थे, और उस न्याव में जागीरदार कर लगाता था।
एक और तर्क है कि रहन सहन अलग होना। राजस्थान में जहां हर 12 कोस बाद बोली बदल जाती है तो उसके पीछे रहन सहन और संस्कृति का अलग होना ही है। राजस्थान के हर राजवंश की भी पगड़ी अलग तरीके की होती थी। हर राज्य की बोली अलग अलग होती थी रहन सहन अलग अलग होता था। तो इसका असर सभी जातियों पर दिखना ही था। लेकिन आज कल के लोगो को तो ये भी नहीं मालुम की उनकी परदादी और परदादा किस तरह के वस्त्र धारण करते थे। आजकल तो उस तरह के वस्त्र ही बड़ी मुस्किल से मिलते है। जोधपुर नागौर की तरफ के क्षेत्र में जाट और कुमार जाति की महिलायें हरा और उसमें लाल और गुलाबी लाइन और चोकड़ी की डिजाइन का मोटा खादी की तरह का कपड़े (स्थानीय भाषा में ‘साड़ी’) से बना घाघरा और उपर कुर्ती कांचली कमीज आदि पहनती थी। पुरूष धोती कुरता पहनते थे और हरी पीली सफेद केसरीया और चुनरी का साफा पहनते थे। वही बाड़मेर की तरफ पुरूष लाल रंग की पगड़ी और अंगरखी और धोती पहनते थे जो राईका जाति के पुरूषों के समान होती थी। धोती और पगड़ी बांधने के तरीके में भी अन्तर था।
कुमारो/कुम्भारों की जनसंख्या अधिक होने के कारण ज्यादातर ने कई पीढियों पूर्व अन्य व्यवसाय अपना लिया। कोई खेती करने लगे कोई चूने से चूनाई और भित्ति चित्र का निर्माण करते। वर्तमान में भी नये नये स्वरोजगार में लिप्त हैं।
अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग कथायें प्रचलित है। कहीं पर शिव पार्वति विवाह की घटना, कहीं पर राणा कुम्भा का स्थापत्य प्रेम, ताे कहीं पर संत कुबाजी को लेकर तो कहीं संत गरवाजी को लेकर कथायें प्रचलित है।
कुछ बन्धुओं का ये भी तर्क है कि हम दूसरें राज्य में सामान्य श्रेणी में आते है इसलिए क्षत्रिय है और कुम्हार चूंकि अन्य पिछड़ा वर्ग में आता है अत: हम अलग जाति के है। उन बन्धुओं को मेरा सुझाव है कि अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित नियम पढे। ऐसा इसलिए होता है कि एक राज्य के अ.पि.व. दूसरे राज्य में जाने पर सामान्य श्रेणी में शामिल होते है। आप कभी दूसरे राज्य की भर्ती परीक्षा में केवल सामान्य श्रेणी में ही भाग ले सकते है। अब कुमावत शब्द की उत्पति राजस्थान में हुई है और राजस्थान से ही कुमावत लगाने वाले लोग देश के विभिन्न हिस्सों में जाकर बसे है। दूसरे राज्य के इतिहास में इस शब्द के बारे में ज्यादा कुछ उपलब्ध नहीं होने कारण और उनको स्थानीय ना मानकर राजस्थानी माना जाने के कारण अपिव श्रेणी में नहीं रखा गया। जब कि यहीं से जाकर अन्य राज्य में, जंहा कुम्हार प्रजापति शब्द प्रचलित है, बसने वाले लोग जाे स्वयं को कुम्हार कहते थे प्रशासनिक मिली भगत से स्वयं को स्थानीय बताकर अपिव श्रेणी का और जिस राज्य में अनुसूचित जाति में हैं वहां अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र बनवा लिया। हालांकि वंहा बस गये फिर भी वंहा के स्थानीय लोगो से रिश्ता नहीं करते।
कुछ बन्धु राजपूत महासभा की पुस्तक का हवाला देते हुए कहते है कि कुमावत कछवाहा राजपूत वंश की एक खाप है। जैसे नाथावत या खंगारोत। यहां में यही कहुंगा कि बिल्कुल कुमावत कछवाहा वंश की एक खाप हो सकती है लेकिन खाप होने पर कुमावत का रिश्ता कुमावत से ना होकर अन्य राजपूत वंश से होगा। जैसे किसी नाथावत का विवाह नाथावत से नहीं होता वैसे ही कुमावत का विवाह कुमावत से नहीं होगा। लेकिन जब कुमावत जाति हो तो कुमावत से रिश्ता हो सकता है अत: जो समाज बन्धु राजपूत समाज की पुस्तक का हवाला देते हैं उन्हे अपनी बुद्धि का थोड़ा इस्तेमाल करना चाहिए।
कुछ बन्धु मरदुशुमारी (जनगणना, census) का हवाला देते है। उनके लिये फिर यही कहना चाहुंगा कि जनगणना में वही आंकड़े होते है जो लोग देते है। अब तक पश्चिमी राजस्थान के लोग कुम्हार लिखवाते आये है और अगली गणना में कुमावत लिखवाते है तो वही लिखा जायेगा जो लिखवायेंगे। जनगणना में जैन पंथ के लोग धर्म हिन्दू लिखवाते आये है। इसलिये जनगणना से पूर्व जैन समाज के लोग कहते भी है कि जनगणना के समय धर्म जैन लिखवाना है हिन्दू नहीं। कुमावत शब्द का प्रचलन देखा देखी ही शुरू हुआ है। पहले 17 वी सदी में एक ने लगाया बाद में देखा देखी दूसरे भी लगाते गये। और अभी भी देखा देखी लगाते जा रहे है।
कुछ बंधु यह तर्क देते हैं कि मारू कुम्हारों में राजपूती नख होते है अत: जरूर राजपूतों से कनेक्शन है और उनका कहना है कि नखों के आधार पर भाटों की बात सही प्रतीत होती है कि हमारे पूर्वज राजपूत थे, किसी कारणवश उन्होने शिल्प कार्य कुम्भकला को अपनाया था।मेरा उन बंधुओं के लिये इतना ही कहना है कि कुम्हार कुमावत राजकुम्हार सभी शिल्पी जातियां है ना कि सेवा करने वाली जातियां, इनमें रिश्तें करते समय गोत्र ही देखी जाती रही है, और चार गौत्र ही टाली जाती रही है। सेवा करने वाली जातियां अपने राजा के वंश के अनुरूप स्वयं का वंश बताती है। अकाल दुर्भिक्ष के समय मेहनत मजदूरी जो भी मिले वो कार्य करने से व्यक्ति की जाति का स्वरूप नहीं बदलता, शिल्पी जातियां सेवा करने वाली जातियों मे तब्दील नहीं हो जाती। अत: मेरा बन्धुओं से विनम्र अनुरोध है कि राजपूती नख जैसी बातों को भूल कर स्वाभिमानी शिल्पियों की तरह केवल गोत्र ही बतायें। सेवा करने वाली जातियों के पास गोत्र नही होती केवल नख होता है।
मैने तथ्यों के आधार पर विश्लेषण किया है। किसी की भावनाओं के ठेस पहुंचाने का मेरा इरादा नहीं है। अगर किसी की भावना को ठेस पहुंची हो तो क्षमा करे।
समाज को कमजोर करने के लिये प्रयत्न हो रहे है, इसी केे विरोध में लिखा गया है। समाज में कई उपजातियां जरूर है जो क्षेत्र और रहन सहन के आधार पर बनी। पर ये सब उपजातियां है तो एक जाति की ही। अब इन उपजातियों को अलग अलग जााति के रूप बदलने का प्रयास किया जा रहा है ताकि समाज कभ्ाी राजनैतिक रूप से एक ना हो पाये। एेेसेे दुुष् प्रयासो को रोकने के लिये ही ये पोस्ट लिखी है।